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साहस का नेपथ्य / रजनी अनुरागी

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औरत डरती है बात करने से
कहीं वाचाल न समझ ली जाए

औरत डरती है चुप रहने से
कहीं मूर्ख न समझ ली जाए

औरत डरती है हर अपने से
कहीं दुश्मन न निकल जाए

औरत डरती है हर बेगाने से
कहीं ‘अपना’ न कह दिया जाए

औरत डरती है हंसने से
कहीं बेहया न समझ ली जाए

औरत डरती है चीखने से
कहीं बद्ज़बान न समझ ली जाए

औरत डरती है
क्योंकि उसे मालूम नहीं है
कि ये सब उसे चुप कराने के तरीके हैं
और जिस घड़ी उसे ये बात समझ आती है
उसके साहस की शुरुआत हो जाती है