साहस के सच्चे ध्वजवाहक / गीता शर्मा बित्थारिया
जो सूरज के घोड़े दौड़ा ले
जो हिमशिख को मैदान बना दे
जो नभ में गाढ़ा इन्द्रधनुष रंग दे
जो हवाओं में सुर लहरी भर दे
जो नदियों की राह मोड़ दें
जो पृथ्वी का माप नाप लें
जो संकल्पों की सिद्धि कर ले
जो अथक अग्निपथ पर चल लें
ऐसे अदम्य साहसी को
तुम कैसे कहते हो
अपंग अपाहिज और विकलांग
वो ना कोई सिकंदर, ना कोई कलंदर
वो तो बस होते हैं
अतरंगी से मस्त मलंगर
किंचित सामर्थ्य में कितने खुश रहते हैं
जब जिद को हौसलों के पंख लगा लेते हैं
इनके संघर्षों की अनसुनी अनकही गाथाएं
अनवरत जारी है जो विषम यात्राएं
ये विजयी पथिक हैं अग्नि पथ के
हर बाधा को जीतेंगे अपने दम पर
ये याचना नहीं रण चुनते हैं
ये रणवीर ये शूरवीर जिद के पक्के
ये तो सच्चे ध्वजवाहक हैं साहस और संकल्पों के
फूल नहीं शूलों पर चल लहराईं है
विजय पताकाएँ
इतने अटल इतने विरल
होते हैं ये जिद के पक्के साधक
स्वयं पराजित होते हैं
इन्हें हराने के सारे जतन
इनके इरादों को कमज़ोर करने के
व्यर्थ उपक्रम
छूना हैं जब ऊँचा अगम्य विहान
ये दूरी नहीं देखते हैं
ये परिंदे अपने पंख नहीं
होंसलों पे भरोसा रखते हैं
अपनी सामर्थ्य से ऊंची अपनी उड़ान रखते हैं