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साहस के सत्तू / कुमार कृष्ण

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जब पहली बार मिला मैं उस शख़्स को
मैंने देखा उसकी आँखों में-
पाँती से बिछुड़ने का दर्द
देखा जीवन को बेहतर बनाने का सपना
तकलीफ़देह होता है कितना जड़ों से कटना
इसे नहीं समझ सकता हर कोई
उसने तलाशी अपने लिए एक और ज़मीन-
योद्धा कवि की ज़मीन
दोस्तो, ज़मीन चाहे पाँती की हो या पांवटा की
एक ही है दोनों की राशि
उसने पहुँचाई पाँती की पुश्तैनी आग पांवटा तक
कितनी तकलीफ़ के बाद ज़मीन बनी होगी पहाड़
भूगर्भशास्त्री से बेहतर इसे नहीं जान सकता कोई दूसरा
वह जानता है अच्छी तरह-
ज़मीन के अन्दर का तापमान
जानता है ज़मीन के अन्दर-बाहर होने वाली हरकतें
पहचानता है ज़मीन की गन्ध
वह जानता है धरती के भीतर अभी कितनी बची है आग
कितने शेष हैं नदियों के घर
उसने तय किया-
वह जाएगा साल में एक बार अपने गाँव
लेकर आएगा वहाँ से हर बार कुछ पुश्तैनी बीज
संभालकर रखा था जिसे उसके पिता ने उम्र भर
वह बोएगा पाँती के बीज पांवटा कि धरती पर
उगाएगा जीवन-मूल्यों की फसल
उगाएगा नन्हीं-नन्हीं स्कूली आँखों में बड़े-बड़े सपनें
बांटेगा साहस के सत्तू
जब सो रहा होगा रात को पूरा पांवटा
वह खेल कर आएगा बचपन के खेल
पाँती के पेड़ों के साथ
वह रोयेगा कभी-कभी नींद में पिता को याद करके
'अर्घ्य' के पन्ने पलटते-पलटते
वह ढूँढ़ेगा हर बार रिश्तों के बचे हुए बीज
भूगर्भशास्त्री रचेगा तब हर बार एक नया समाज-शास्त्र।