साहस / आनंद कुमार द्विवेदी
अब जबकि एक जीवित मशीन में भरी है
सारी की सारी दुनिया
कुछ भी तो दूर नहीं है पहुँच से
विश्वव्यापी होने के सपनों को जेब में रखे
मैं अक्सर उसमें देख लेता हूँ आपको
तस्वीरों में अक्सर ढूँढता रहता हूँ
न जाने क्या क्या
दुनिया भर को प्रेम लुटाती आपकी बातें
मुस्कराहटें
सब सच लगती हैं मुझे
सच कहूँ तो मुझे आपकी मशीन वाली दुनिया
ज्यादा अपनी सी लगती है
बनिस्बत मेरी हक़ीक़त वाली दुनिया से
जिसमें
जीवन है
पत्थर की प्रतिमा पर चढ़ाये गए फूल सा
निष्प्राण … कुम्हलाया
मैं इसे "भगवान की प्रतिमा पर चढ़ाये गए फूल सा"
भी कह सकता था, …।
ये संकेत है आपके लिए
कि मैं अब उतना उदार नहीं रहा
या हो गया हूँ इतना साहसी कि कह सकूँ
पत्थर को पत्थर
दुःख को दुःख
खिलवाड़ को खिलवाड़
और प्रेम को प्रेम !