भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साहस / राजूरंजन प्रसाद
Kavita Kosh से
सागर का तट
छोटा पड़ जाता है
जब फैलाता हूं अपनी बांहें
सिमट आता है सारा आकाश
पर
आ नहीं पाता
बांह की परिधि में
अंदर का साहस।
(21.11.91)