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साहिल पे मैंने रेत का क्या घर बना दिया / अनुज ‘अब्र’

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साहिल पे मैंने रेत का क्या घर बना दिया
मेरे ख़िलाफ़ लहरों ने लश्कर बना दिया

सूरज ने दे के चाँद को कुछ अपनी रौशनी
ख़ुद की तरह उसे भी मुनव्वर बना दिया

मीलों भटक रहा है मुझे साथ में लिए
मैंने ये कैसे शख़्स को रहबर बना दिया

कट ही नहीं रही थी ये मुझसे तवील रात
लो इसको मैंने मोड़ के चादर बना दिया

उसकी जुदाई में जो गिरे थे तमाम उम्र
मैंने उन आँसुओं का समन्दर बना दिया

सदियों से 'अब्र 'एक जगह हूँ खड़ा हुआ
किसने मुझे ये मील का पत्थर बना दिया