भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साहिल पे मैंने रेत का क्या घर बना दिया / अनुज ‘अब्र’
Kavita Kosh से
साहिल पे मैंने रेत का क्या घर बना दिया
मेरे ख़िलाफ़ लहरों ने लश्कर बना दिया
सूरज ने दे के चाँद को कुछ अपनी रौशनी
ख़ुद की तरह उसे भी मुनव्वर बना दिया
मीलों भटक रहा है मुझे साथ में लिए
मैंने ये कैसे शख़्स को रहबर बना दिया
कट ही नहीं रही थी ये मुझसे तवील रात
लो इसको मैंने मोड़ के चादर बना दिया
उसकी जुदाई में जो गिरे थे तमाम उम्र
मैंने उन आँसुओं का समन्दर बना दिया
सदियों से 'अब्र 'एक जगह हूँ खड़ा हुआ
किसने मुझे ये मील का पत्थर बना दिया