भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिंगल थिएटर नहीं अब मल्टीप्लेक्स / नवनीत नीरव
Kavita Kosh से
इस देश में सभी अंधे बसते हैं,
तभी तो यहाँ खोटे सिक्के चलते हैं.
स्वभावतः सभी टेढ़े हैं यहाँ पर,
सीधे हुए जो पेड़ पहले कटते हैं.
कोयल काली पर जबां हैं सफ़ेद,
जबां बिगाड़े कौए बेमौत मरते हैं.
गणना और आकलन कर रही मशीनें,
लगता नहीं कुछ भी इंसान से हल होते हैं.
न चाँद मामा रहा न बरगद बाबा,
रिश्ते अब सीमाएं जातियों से तय करते हैं.
गाँव में बच्चे-बूढ़ों संग वीरानियाँ भी पलतीं,
शहर में रातों को जवानियाँ ही जगती हैं.
खुद की बजाय गैरों की जिंदगी में झांके सब,
सिंगल थिएटर नहीं अब मल्टीप्लेक्स खूब चलते हैं.
.