भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिंझ्या बहू / कन्हैया लाल सेठिया
Kavita Kosh से
गोरै दिन रै लारै सिंझ्या बहू सांवळी आई !
माथै बांध्यो चांद बोरलो
पग पाजबां तारा,
सुपनां बाजूबन्द जड़ाऊ
सोवै कामणगारा,
सागै पेई भर नींदड़ली नैण मोवणी ल्याई।
गोरै दिन रै लारै सिंझ्या बहू सांवळी आई।
बादळिया दो च्यार कुंआरा
देवरिया मटबोला,
भौजाई कोयला री जाई
करै कितोळां रोळा,
पकड़ कानड़ा दकाल्या स्याणी नणदल बाई।
गोरै दिन रै लारै सिंझ्या बहू सांवळी आई।
दिन दिवळै री लौ में धण स्यूं
मिलियो लाजां मरतो,
पड्या रात रै खोजां नै ओ
काजळ कैवै डरतो,
घाल मिलण सैनाण करै जग धूंधी दीठ सवाईं।
गोरै दिन लारै सिंझ्या बहू सांवळी आई।