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सिंधु के विस्तार में सम्मुख कई मंझधार हैं / विनोद तिवारी

सिंधु के विस्तार में सम्मुख कई मझधार हैं
है सुरक्षित नाव पर खण्डित हुए पतवार हैं

कौन कर्त्तव्यों के काँटे शीश पर धारण करे
सबकी ढपली के चहेते राग तो अधिकार हैं

वे क्षितिज के पास ललछौंहे-से कुछ बादल दिखे
कौन जाने रात के या प्रात के आसार हैं

तीस से ऊपर हुई है उम्र अपनी दोस्तो
आजतक अवलंब बिन चलने में हम लाचार हैं

गाँव ख़ुशहाली का कितनी दूर है कोई कहे
थक गए हैं पाँव चलते-चलते हम बेज़ार हैं