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सिंधु को अभिमान निज विस्तार पर है / योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

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सिंधु को अभिमान निज विस्तार पर है
पर अधूरी है नदी की प्यास अब तक

पुष्प ने तो नित्य भँवरों को लुभाया
प्यार अपना तितलियों पर भी लुटाया
कल्पना थी, तूलिका थी, रंग भी थे
ख़ुशबुओं का चित्र फिर भी बन न पाया

हँस रही हैं नागफनियाँ धृष्टता से
और माली कर रहा उपहास अब तक
सिंधु को अभिमान...


बाँसुरी का साथ स्वर से छुट रहा है
भावनाओं का यहाँ दम घुट रहा है
खो गया है आपसी हँसना-हँसाना
नित्य पीड़ा का ख़जाना लुट रहा है

ढूँढने पर भी न मिल पाए कहीं पर
वो ठहाके वो ख़ुशी उल्लास अब तक
सिंधु को अभिमान....


बाण तीखे शब्द के चुपचाप सहना
और बदले में कभी कुछ भी न कहना
प्रश्न मुझसे रात भर करता रहा मन
क्या सही है आँसुओं का मौन रहना

खोजना चाहा कभी जब कारणों को
मूक-बधिरों सा रहा इतिहास अब तक
सिंधु को अभिमान....