भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिंहनाद / भजनसिंह 'सिंह'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पैलि गढ़देश त्वीकू नमस्कार छ।
तेरि हम पर दया-दृष्टी अपार छ।
तेरि दया म हमकू बड़ी मौज छ।
वीर-पुत्र की तेरी खड़ी फौज छ।
पैलि उन्नीस सौ पन्द्र का लाम मा।
जर्मनी-फ्रांस का घोर संग्राम मा।
सात-सागर तरी देश का का कू।
जाति का और ब्बे<ref>माता-पिता</ref> बाबु का नाम कू।
ये गया बेधड़क बैठि की जाज मा।
देरि ही नी करे राज का काज मा।
लोग ब्बे-बाबु भी छोड़ि गैने इख।
घर क्वी भागि ही लौटि ऐने इख।
फ्रांस की भूमि जो खून से लाल छ।
उख लिख्यूं खून से नाम गढ़वाल छ।
रैंदि चिंता बड़ौं तैं बड़ा नाम की।
काम की फिर्क रैंदी, न ईनाम की।
‘राठ’ मा गोठ गौं को अमरसिंह छयो।
फ्रांस को लाम मा भर्ति ह्वै की गयो।
ज्यौं करी घर मूँ, लाम पर दौड़िगे।
फ्रांस मां, स्वामि का काम पर दौड़िगे।
नाम लेला सभी माइ का लाल को।
जान देकी रखे नाम गढ़वाल को।
शास्त्र मा कृष्ण जी को लिख्यूँ साफ छ।
धर्म का वास्ता खून भी माफ छ।
न्याय का वास्ता सैरि दुनिया लड़े।
भाइ तें भाइ को खून करनो पड़े।
आतमा अमर छ, बीर नी मरदन।
शोक ऊँ कू किलै खामखाँ करदन।
रणम करन से मिलदो स्वर्ग-धाम छ।
जीत ह्वैगे त होन्दो अमर नाम छ।
भार्या वे कि छै देवकी नाम की।
वा सती छै बड़ी भक्त ही राम की।
स्वामिजी तब बटी<ref>से</ref> लाम पर ही रया।
चिट्ठी भी वो कभो भेजदा ही छया।
जब कभी स्वामि की चिट्ठी आंदी छई।
देवकी वींवीं सब्यूं मू पढ़ांदी छई।
चिट्ठी सुणी खुशी हूँदि दै देवसु।
स्वामि की याद से रुंदि छै देवकी।
सासु-ससुरा कि सेवा म रांदी छई।
कै का मुख पर नजर नी लगांदी छई।
स्वामि का नाम को व्रत लेंदी छई।
भूखा-प्यासौं तई<ref>को</ref> भीख देंदी छई।
जब कभी स्वामि की याद आंदी छई।
रात-दिन रुंदि रुंदि बितांदी छई।
स्वामिजी छन म्यरा<ref>मेरा</ref> फ्रांस की लाम मा
घर छौं भी अफू लोलि आराम मा।
वो न जाणे कया कष्ट सहणा छन?
या कखी भूखा-प्यासा हि रहणा छन।
पेट-मोरी कि या भी नि खांदी छई।
रात दिन स्वामि की सोच रांदी छई।
एक दिन वो छया घर मु जब छया।
हैंसदा-खेलदा ही कना दिन गया।
भूख नी छै हमू प्यास नी छै कभी।
रात दिन प्रेम पूर्वक बितैने सभी।

हाय भगवान वे जर्मनी को मरे।
पापि न या किलै घौं लड़ाई करे।
साथ का लोग घर बौड़ि<ref>लोट गये</ref> गैने सभी।
वो न जाणे लिै की नि ऐने अभी।
चिट्ठी भी भौत दिन से नि आई इख।
तब बटी कुछ खबर भी निपाई इख।
ऊँकि चिट्ठी किलैक नि आंदी होली?
काम से सैत<ref>शायद</ref> फुरसत नि रांदी होली?
घर च जो अफू लोलि आराम मा-
वा क्या जाणो कि क्या बीतदीं लाम मा।
चैत भी बौड़ि बौड़ीक ऐगे इख।
देवकी बाठा देखो कि रेगे इख।
डांडि-कांठी सभी हैरि ह्वैने चुचों।
डालि-बूटी सभी मोलि गैने चुचों।
घुगति भी लाम से लौटि ऐने इख।
फूल कै भाति का फूलि गैने इख।
चन्द्रमा को जबौं लौअि ऐगे कभी।
रौतु को नौनु भी घर ऐगे अभी।
देवि दैव्तौं तई भी मनांदी छई।
रात दिन वा पुछारू पुछांदी छई।
पुछणु कू बाट का बट्बै मू गये।
औंदा जांदौं तई पूछदी वा रये।
रात दिन एक सी बितांदी छई।
हर घड़ी स्वामि की सोच रांदी छई।
पर लिख्यूँ भाग मा जोकि जैका रयो।
फिर वही अंतमा ह्वै कि रहणो छयो।
फ्रांस से मौत को तार छूटी गये।
”देवकी को बल-भाग फूटी गये“।

आदमी सोच दो त बड़ी दूर छ।
हून्द वी जो विधाता कु मंजूर छ।
वैन जो कुछ करे न्याय, सहणो पड़े।
सबकु मजबूर चुपचाप रहणो पड़े।
रोज दुखः सुख इथा? आप सहणा छवाँ।
- - - - -

एक दिन, जब जरा घाम छौ धार<ref>पहाड़ी</ref> मा।
रूम्कै<ref>शाम</ref> पड़णी छई सैरि<ref>सारा</ref> संसार मा।
बोण<ref>बन</ref> का गोरु जब घअर आणा छया
पंछि अपड़ा बसेरों मु जाणा छया।
गौंकि सब बेटि-ब्बारी<ref>बहुएं</ref> मि धाणी<ref>काम</ref> बटी<ref>से</ref>।
रमकदी-झमकदी<ref>झूमती</ref> घास-पाणी बटी।
क्वीं थकीं, क्वीं डरीं, क्वीं कणाणी छई।
भारि कै<ref>जल्दी-जल्दी</ref> बै करी घअर आणी छई।
घअर मू कैकि सासु खिजेणी<ref>धमकाना</ref> छनअ।
जो नि देणो इनी मैकि देणी छनअ।
क्वो करवी दूदिको नोनु<ref>बच्चा</ref> रोणू छयो।
यां परै द्वी झणों<ref>जन</ref> झगड़ा होणू छयो।
क्वी पंदेरी<ref>पनिहारिन</ref> पंदेरा मु आणी छई।
वाजि<ref>काई</ref> लमडेर<ref>आलसी</ref>, जन्दी<ref>चक्की</ref> लगाणी छई।
कुटणु कू ब्वारि-भारी ल्हि जाणी छनअ।
क्वी झणो गौड़ि-भैंसी पिजाणी<ref>दोहना</ref> छनअ।
ज्वान जोरा तमाखू उडाणा छया।
बूड-बुड्डया मि बरड़ांद<ref>बड़बड़ाना</ref> जाणा छया।
मौज हूणी छई इनि जबारी उखअ
काबुली एक ऐगे तबारी उखअ।

लम्बु भारी बदन एक चोला छयो।
हींग देंदो रुप्ये एक तोला छयो।
कैरणी<ref>कंजी</ref> आंखि, मैलो-कुचैलो बड़ो।
भूत-सी, ऐकि सोंदिष्ट<ref>सामने</ref> ह्वेगे खड़ो।
आज तक जो क्या सूणि छै जै न भी।
भूत सैंदिष्ट देखी नि छो कैन भी।
देखि तै छोटा छोरा भग्या रात मा।
आज क्या हूणि-जाणी ण, परमात्मा।
नौनु व ेदखि; की एक रोये जबअ।
बूड-बुड्यों को यो हुक्म होये तबअ।
रात रहणू जगा तै नि देलो कईअ।
नौनु सैंल्यूं-पल्यूं<ref>पाला-पोसा</ref> जी छले लो<ref>भूत लगना</ref> कुई।
दूर गौं से अलग एक कूड़ो<ref>मकान</ref> छयो।
घअर, तैं रात बती आदमी नी रयो।
देवकी एक विधवा विचारी छई।
वा अफी पापि किस्मत कि मारी छई।
स्वामि का नाम को व्रत ल्हेंदी छई।
भूखा-प्यासों तई भीख देंदी छई।
चौक मा काबुली पोंछि ऊंका गये।
पापि बाकारुणा<ref>फूट-फूट</ref> कैकि रोणू रये।
”दीदि! देदे जगा आज की रात ही।
फेर चलि जौलु मी मोल-परभात ही“
भोलि-भालि, कपट-छल नि जणदी छई।
हौरू को दिल भि अपणों-सि गणदी छई।
छै दयावन्ति घ्ज्ञरकी अकेली रई।
खालि छो ओबरो<ref>नीचे का हिस्सा, मकान का</ref> बोड<ref>ऊपर का हिस्सा</ref> रांदी छई।
ओबरा का किनारा जगा रात मा
पेट भोरी मिले खाणु भी साथ मा।

जबकि संसार समसूत<ref>गहरी नींद</ref> ह्वेगे छई।
कुक भुकणा छया दूर, गौं मा कई।
गाड<ref>नदी-नाले</ref>-गदरों कु स्वीं स्याट होणू छयो।
सालि<ref>गौशाला</ref> का मूड़ि<ref>नीचे</ref> की स्याल् रोणू छयो।
सैरि संसार आराम पाणी छई।
नींद पर काबुली तैं नि आणी छई।
खड़-उठी वो, सुरक भैर आणू छयो।
बौड की देलि भू बैठि जाणू छयो।
आंदो-जांदो छयो द्वार भी खेल दो।
देकि धक्का, छयो रोष मा बोल दो।
जो भलो चांदि तब खोलिदे द्वार तू।
खांमखां केकु खांदी म्यरी मार तू?
दूर छौ गों, विचारी अकेली रई।
क्या करो? वेकि सब बात सुणणी छई।
रुन्दि छै भारि, धिडुड़ी<ref>पक्षी</ref> सि रिटणी<ref>चक्कर</ref> छई।
भांडा-कूंडा लगै द्वार किटणी छई।
काबुली भैर, भीतर छई वा खड़ी।
नी खुल्या द्वार जब देर ह्वेगे बड़ी।
भाग-सेद्वार भी एक कच्चो रये।
फेर भीतर की सांकल भी टूटी गये।
जबकि-कैको बुरो वक्त आंदअइण अ।
खून भी वैकु आपड़ो नि रांदअ इखअ।
अपड़ि छाया जु रहंदी सदा साथ मा।
साथ नी रैंद वा भी चुचों, रात मा।
मिरग पर बाण मरदअ शिकारी जबअ।
खून ही पेड़ अपड़ी बतान्दअ तबअ।
लाल आंखी करी, छौ छुरा हाथ मा।
पौंछिगे काबूली क्रोध का साथ मा।

वीन बोले-अरे, भैर जा, मान तू।
खांमखां खुंदि अपड़ी किलै ज्यान तू?
खूंदु छै उख, जखी खांदु छै गास तू।
कै मुलक को छई चोर-बदमाश तू?
तू सियीं-सिंहणी तैं जगाणू छई
आगि पर हाथ-केकू लगाणू छई।
पर नि मान्यो कतै, वीं डराणू रये।
होरि<ref>और</ref> डडो पकड़णू कु आणू रये।
स्वामि सुमरी, उठी बात की बात पर।
खैंचि खुंकरी सिंराणा बटी हाथ पर।
मूलिगे क्या च वा, नी रई होश मा।
भूखि-सी सिंहणी वा छुटे रोश मा।
क्रोध से वे परैं ब्रज-सी टूटिगे।
हाथ से काबुली को छुरा छूटिगे।
बिजली-सी रात खुकरी चमकणी छई।
आग-सी तन बदन वीं का जगणी छई॥

शब्दार्थ
<references/>