दूर-दूर तक
धुला हुआ वन
आकाश में छितरे
रीते हुए घन
झूलता जिनसे लिपट कर चांदनी का तन
बहकती वायु का अंचल पकड़ कर खींचते हैं
शाल वृक्षों के हठीले हाथ
फुसफुसाते पात पीपल के रहे कह
माधवी से गन्ध-भीनी बात
नटखट निर्झर फिसलते हैं ढलानों से
कि जैसे वारुणी पीकर
बहुत से किन्नरों के पग थिरकते हैं