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सिंहासन की अन्ध पिपासा / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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क्या है झूठ
सत्य क्या होगा
कौन करेगा यह परिभाषा?

बौरायी है
उधर सियासत
इधर
आग बरसी मौसम की
फोड़ रहे औरों के माथे
हाँडी अपने-अपने ग़म की
धूल उड़ाती काली आँधी
उठे हुये हैं कुटिल बवंडर
उथल-पुथल
जितनी बाहर है
उतनी ही है घर के अन्दर
हाथ झाड़कर
खड़ी व्यवस्था
छायी
चारों ओर हताशा।
कोई नहीं किसी की सुनता
सब अपनी-अपनी कहते हैं
जैसी शातिर चली हवाएँ
बस वैसे ही तो बहते हैं
शंख बज चुके
जंग छिड़ी है
शब्द बाण चलते अनियारे
घमासान में मचे हुए हैं
चौराहे, सड़कें, गलियारे
दिशा-दिशा से घिरा आ रहा
दम घोंटू सा
एक कुहासा।

नियम मुक्त हैं
सब चलता है
तू-तू, मैं-मैं टाँग खिंचाई
जिसकी जो औक़ात चलाए
झंडे-डंडे मार कुटाई
मूँछ मरोड़ खड़ा है शकुनी
धर्मराज माथा पकड़े हैं
मुट्ठी भींचे विवश पितामह
पत्थर होकर भीम खड़े हैं
कुरुक्षेत्र ही तो रचती है
सिंहासन की
अन्ध पिपासा।