सिंहासन की छाया तले दूर दूरान्तर में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
सिंहासन की छाया तले दूर दूरान्तर में
जो राज्य स्पर्घा घोषित करता है
राजा और प्रजा में कोई भेद-भाव,
पाँव तले दबाये रखता है वह अपना ही सर्वनाश।
हतभाग्य जिस राज्य के सुविस्तीर्ण देन्य-जीर्ण प्राण
राज मुकुट का नित्य करते है कुत्सित अपमान,
उसका असह्य दुःख ताप
राजा को न लगे यदि, तो लगता है विधाता का अभिशाप।
महा ऐश्वर्य के निम्न तल में
अर्धाशन अनशन नित्य धधकता ही रहता है क्षुधानल में,
शुष्क प्राय कलुषित है पिपासा का जल,
देह पर है नहीं शीत का व़स्त्र सम्बल,
अवारित है मृत्यु का द्वार,
निष्ठुर है उससे भी जीवन्मृत देह चर्मसार।
शोषण करता ही रहता है दिन-रात
रुद्ध आरोग्य के पथ पर रोग का अबाध अपघात-
जिस राज्य में बसता हो मुमूर्षु दल,
उस राज्य को कैसे मिल सकता प्रजा का बल।
एक पक्ष शीर्ण है जिस पक्षी का
आँधी के संकट क्षेणों में नहीं रह सकता स्थिर वह,
समुच्य आकाश से धूलि में आ पड़ेगा अंशहीन,
आयेगा विधि के समक्ष हिसाब चुकाने का एक दिन।
अभ्रभेदी ऐश्वर्य के चूर्णीभूत पतन के काल में
दरिद्र की जीर्ण दशा बनायेगी अपना नीड़ कंकाल में।
‘उदयन’
सायाह्न: 24 जनवरी, 1941