सिंह सम्बोधन / बसन्तजीत सिंह हरचंद
अहो , जन जन !
जहाँ सत्य - रक्षा को तुमने तलवार धरी ,
उबलते रक्त से वीरता की माँग भरी ;
रचते ऋचाएं तुम शूर धारदार बने,
यज्ञों की लपटों में
तप तपकर ----तप- तप कर ----
साधारण लोहा से लप - लप हथियार बने;
जगती - तल - विध्वंसक ब्रह्मास्त्र - धार बने,
बार - बार वार बने;
सब कुछ निगलने को मुँह बाए प्लावन - सम
बाह्य आक्रमणों को चट्टानी ढाल बने,
शस्त्र - झंकारों पर
युद्धों में ताण्डव कर घोर - उग्र काल बने,
जहाँ अत्याचारों के भेड़िए घूम रहे ,
मद - मस्त झूम रहे .
गायों की पहने जो छद्ममयी खाल हैं ,
आंतर में घृणा के क्रुद्ध फना व्याल हैं .
हर्ष कहाँ खो गए ?खोया आनन्द है ,
विषाक्त परिवेश में वैर है ,द्वेष है ,
त्रास निर्द्वन्द्व है .
भेड़ों को भेड़िए फाड़ - फाड़ फेंक रहे
सभी मूक देख रहे ,
ऐसे में साहस,
स्वातन्त्र्य असुरक्षित हैं ,भक्षित हैं ;
धीरज आतंकित है ,
शंकित हैं .
तुमने थे मिथ्या आचारों के कंठ काटे
सिंहता के भाव बाँटे,
तुमने ही गुनगुने लोहू से चरण धो
मस्तक - मालाएं पहनाईं शुभ शिवा को .
फिर सिर उठाओ तुम,
चंडी की पूजा को
अपनी अंजुरियों में छिन्न शीश लाओ तुम ;
तिमिरों के कटे मुंड
किरणों के भालों के ऊपर उछालकर
गहरे फंसाओ तुम,
सूर्यों की सैन्य बने सडकों पर आओ तुम .
ठंडे शव प्राणों में
जीवंत शौर्य की विद्युत् - गति भरो,
धूर्त पाखंडों के मुंडों के झुंडों पर
उन्मुक्त होकर उन्मत्त विचरो ;
निर्भय दहाड़ो
हिंस्र अन्यायों के उदरों को फाड़ो.
जिनकी चिंघाड़ों से ब्रह्मांड कांपता ,
ऐसे गजों के घर गज ही हैं जन्मते ;
हथिनी देती न जन्म शूकर - सन्तान को .
दुर्बलता त्यागो ,नपुंसकता छोडो ,
बाहर आओ मन की सीमाएं तोड़ो ;
निडर तनो ,
सिंह बनो
सिंह बनो
सिंह बनो ;
बनो क्या ,सिंह हो तुम
अहो , जन- जन! नृसिंह जनों ..
सिंह बनो
(श्वेत निशा ,१९९१)