सिकुड़नें मुख मंडलों पर शत्रुभय की / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
सिकुड़ने मुख मंडलों पर शत्रुभय की
है असंगत घोषणा अपनी विजय की
श्रृंखला विश्वासघातों की बड़ी है
मित्रता अक्सर बहुत मंहगी पड़ी है
सत्यता का नग्न तन सहमा खड़ा है
हाथ में थामे समय लम्बी छड़ी है
आपकी अति नम्रता करती सशंकित
बोलते हैं ठग सधी भाषा विनय की
सिकुड़ने मुखमंडलों..............................
थे सुनिश्चित ये अप्रिय अध्याय काले
आस्तीनों में विषैले सर्प पाले
छोड़कर हमने खुले सारे ख़ज़ाने
रिक्त कक्षों पर जड़े हैं खूब ताले
हो गयीं कैसी परिस्थितियाँ विनिर्मित
हम नहीं पहचान कर पाये समय की
सिकुड़ने मुखमंडलों................................
आ गयी कितनी शिथिलता आचरण में
लक्ष्मण हैं सम्मिलित सीताहरण में
रामजी का राज आएगा कहाँ से
व्यस्त हैं सब रावणों के अनुकरण में
बुद्धि के उत्कर्ष की गाथा निराली
हो गयीं विद्रूप अनुकृतियाँ हृदय की
सिकुड़ने मुखमंडलों.................................
सीखकर पाखण्ड आद्योपांत हमने
चुन लिए सुविधाजनक सिद्धान्त हमने
मानसिक संकीर्णताएँ हैं यथावत
क्या हुआ जो रट लिए वेदांत हमने
कौन है इसके लिए दोषी बताओ
सृष्टि यदि गिनने लगी घड़ियाँ प्रलय की
सिकुड़ने मुखमंडलों..................