सिक्का उछला रे! / राघवेन्द्र शुक्ल
सिक्का उछला रे!
जब किस्मत के मैदान में..
तौल रहे हैं खोए-खोए
क्या खोया क्या पाया।
सिक्के ने क्या नया लिखा है
क्या प्राचीन हटाया।
कितना सच होंगे?
जीवन भर के अनुमान में।
सिक्का उछला रे!
जब किस्मत के मैदान में।
रात चुनें या दिन बेहतर है,
किस विकल्प पर जाना!
दिल की बात सुने या जीवन
चुने, राह दिखलाना!
सच बतलाना रे!
इस अंतिम अनुसंधान में।
सिक्का उछला रे!
जब किस्मत के मैदान में।
एक ओर है हंसी फूल की
एक ओर है कांटा।
एक ओर संगीत सुरीला
एक ओर सन्नाटा।
अपनी बारी पर
जा अटका है असमान में।
सिक्का उछला रे!
जब किस्मत के मैदान में।
झन-झन-झन-झन झनक रहा, यूं
हवा बजाती कंगन।
कण-कण के ईश्वर की वाणी
का हो रहा तरंगन।
कुछ 'गा' आया है
पर, नियतिकार के कान में।
सिक्का उछला रे!
जब किस्मत के मैदान में।