भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिक्ता कर रही सुरंग चूनरी ऋतु पावसी निगोड़ी थी / प्रेम नारायण 'पंकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
 सिक्ता कर रही सुरंग चूनरी ऋतु पावसी निगोड़ी थी ।
स्मृति कौंध गयी कैसे मोहन से मचती होड़ा-होड़ी थी ।
किस विधि भींगा था पाग उपरना हार गए थे बनवारी ।
सिर नवा खड़े थे हरी ताली दे दे हंसती थी व्रजनारी ।
थे नवल किशोर कुञ्ज में स्थित दे कोमल कर में करमाला।
शत-शत लीला तरंग स्मृति में बह गयी विरहिणी व्रजबाला।
"रसिकेश्वर! बात निहार रही बावरिया बरसाने वाली -
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली॥५॥