सिखउनी / रामकृष्ण
जइसन अप्पन घर पर ममता ओइसने ममता देस पर।
होवे के चाही भाई अब, रिखिअन के सन्नेस पर॥
पहिले खूब पढ़ावऽ नन्हेपन से बेटा-बेटी के,
तबे देस से उपह सकऽ हौ रूप-अरूप अनेती के।
लिख लोढ़ा पढ़-पत्थर बनके कोई न´ अब रहे इहाँ,
आँगनबाड़ी, वयसी सिच्छा-गाछ लगावऽ इहाँ-उहाँ॥
घर-घर में पसरे इंजोर, तितकी बारीजा क्लेस पर॥
खेती, खरिहानी, कोठी में लछमी के पायल बजतइ।
छोटका बड़का करखाना के सोभा में कल-बल सजतइ।
मेहनत के करतब से अप्पन, चलऽ बाज आवीं ऊ खेल,
चिक्का, डोल, घुमउआपत्ता, सगरो चलऽ बोलते सेल॥
अप्पन घर, दूरा-दलान से साधाऽ नजर विदेस पर॥
कड़े कमान बान-बानी से आग न कनहूँ सुलगावऽ,
हम्मर-तोहर के बँटवारा ला गुर न´ कुछ तबलावऽ।
जे घर फोरे हमनी के ओकरा से अब चेतल रहिहऽ,
तीत-मीठ बोली अनहिसका के भरसक जहरे बुझिहऽ॥
तीन लोक के महिमा पसरल सँसकीरती विसेस पर॥