भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिगरेट जो सुलग नहीं पाई / नाज़िम हिक़मत / अनिल जनविजय
Kavita Kosh से
सम्भव है, इस रात वह गिर जाए और कमीज़ पर हो
बारूद की आग का निशान
ख़ुद बढ़ रहा है वह आग की तरफ़
उसकी भयानकता को भूलकर
— सिगरेट है क्या? — उसने पूछा मुझसे
— है ! — उत्तर में मैंने कहा
— और माचिस ?
— नहीं है, बन्दूक की आग से सुलगा लो उसे ...
उसने ले ली सिगरेट, चला गया
शायद अब लेटा होगा चट्टान की तरह
दाँतों में दबी होगी सिगरेट बिना जली
और दिल उसका भूल चुका होगा हर तरह का ख़तरा
चला गया साथी वहाँ चला गया
जहाँ जीवन को काटता है सीसा ...
सलीब ...
समाप्त ।
1930
रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय