भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सितमज़रीफ भी दिल कितना सादा रखता था / कांतिमोहन 'सोज़'
Kavita Kosh से
सितमज़रीफ<ref>सितम करनेवाला</ref> भी दिल कितना सादा रखता था ।
बजाए-तीर वो तरकश में बादा रखता था ।।
वो क़ाफ़िला था मेरा इन्तज़ार क्यूँ करता
वगरना कूच का मैं भी इरादा रखता था ।
सितम के बाद मुरव्वत पे वो उतर आया
मैं उससे कुछ तो तवक़्क़ो ज़ियादा रखता था ।
ये एक क़सूर तो अपना ज़रूर था यारो
ज़मीन तंग थी मैं दिल कुशादा रखता था ।
विकट थे उनके मुखौटे कि मैं निकल भागा
अगरचे मैं भी बग़ल में लबादा रखता था ।
ये अपना तर्ज़े-अमल आख़िरत<ref>अंत में</ref> में काम आया
कोई हिसार<ref>घेरा</ref> हो मैं फ़िक्रे-जादा रखता था ।
चला जो सोज़ तो मातम हुआ न जश्न मना
ये शख़्स किसलिए एहबाबो-आदा<ref>दोस्त और दुश्मन</ref> रखता था ।।
शब्दार्थ
<references/>