भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सितम-ओ-जौर की रूदाद सुनाते चलिए / सादिक़ रिज़वी
Kavita Kosh से
सितम-ओ-जौर की रूदाद सुनाते चलिए
अपने कान्धों पे सलीब अपनी उठाते चलिए
दूसरों के लिए आसाँ हो गुज़र गाहे-हयात
राह पर नक़शे-क़दम ऐसे बनाते चलिए
उलझने सारे ज़माने की जो हल करना हों
साया-ए-ज़ुल्फ़ से दामन को बचाते चलिए
ताकि दीवाना बनाए न यह दुनिया की नज़र
दिल के अरमानों को दिल ही में सुलाते चलिए
चांदनी रात है बहती हुई चलती है हवा
दिल के सोये हुए जज़्बात जगाते चलिए
ज़िंदगी में जो बिछाते रहे कांटे सरे राह
उनकी भी क़ब्र को फ़ूलों से सजाते चलिए
बज़्म-ए-जानाँ कभी बरहम न थी इतनी 'सादिक़'
आज के रंग पे दो अश्क बहाते चलिए