भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सितम जब ज़माने ने जी भर के ढाये / नीरज गोस्वामी
Kavita Kosh से
सितम जब ज़माने ने जी भर के ढाये
भरी सांस गहरी बहुत खिलखिलाये
कसीदे पढ़े जब तलक खुश रहे वो
खरी बात की तो बहुत तिलमिलाये
न समझे किसी को मुकाबिल जो अपने
वही देख शीशा बड़े सकपकाये
भलाई किये जा इबादत समझ कर
भले पीठ कोई नहीं थपथपाये
खिली चाँदनी या बरसती घटा में
तुझे सोच कर ये बदन थरथराये
बनेगा सफल देश का वो ही नेता
सुनें गालियाँ पर सदा मुसकुराये
बहाने बहाने बहाने बहाने
न आना था फिर भी हजारों बनाये
गया साल 'नीरज' तो था हादसों का
न जाने नया साल क्या गुल खिलाये