भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सितम ढा रहे हैं सवेरे-सवेरे / डी .एम. मिश्र
Kavita Kosh से
सितम ढा रहे हैं सवेरे-सवेरे
कहाँ जा रहे हैं सवेरे-सवेरे
झुकाये हैं नज़रें, छुपायें हैं मुखड़ा
क्यों शरमा रहे हैं सवेरे-सवेरे
कि जैसे किसी ने पकड़ ली हो चोरी
वो घबरा रहे हैं सवेरे-सवेरे
निकलते नहीं थे जो पर्दे से बाहर
नज़र आ रहे हैं सवेरे-सवेरे
रूखे गुंचा ओ गुल पे शबनम के दाने
पिघल जा रहे हैं सवेरे-सवेरे
सवेरा हुआ प्यास फिर जग गयी है
वो तरसा रहे हैं सवेरे-सवेरे
कभी जो गये ही नहीं एक पल को
वही आ रहे हैं सवेरे-सवेरे