भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सितम में भी शान-ए-करम देखते हैं / 'मुशीर' झंझान्वी
Kavita Kosh से
सितम में भी शान-ए-करम देखते हैं
हमें जानते हैं जो हम देखते हैं
जहाँ तक तअल्लुक़ है ऐब ओ ख़ता का
जो अहल-ए-नज़र हैं वो कम देखते हैं
तेरा इंतिज़ार इस क़दर बढ़ गया है
के हर आने वाले को हम देखते हैं
नज़र सू-ए-काबा है दिल बुत-कद में
हम अंदाज़-ए-अहल-ए-हरम देखते हैं
निगाहें यूँही मिल गईं बे-इरादा
न वो देखते हैं न हम देखते हैं
ये दुनिया तो क्या है सर-ए-अर्श-ए-आज़म
हम अपना ही नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
किसे अपना हाल-ए-परेशां सुनाएँ
परेशां ज़माने को हम देखते हैं
मेरी मंज़िलत कुछ इसी सी समझिए
मेरी रह दैर ओ हरम देखते हैं
तेरी जुस्तुजू में हम अहल-ए-तमन्ना
ख़ुशी देखते हैं न ग़म देखते हैं
‘मुशीर’ अहल-ए-बीनश मेरी हर ग़ज़ल में
दिमाग़ और दिल को ब-हम देखते हैं