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सितम ही मुझपे अगर बेहिसाब होना था / हरिराज सिंह 'नूर'
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सितम ही मुझपे अगर बेहिसाब होना था।
तो हौस्लों को न ख़ाना-ख़राब होना था।
वो क्यों छुपाए था ख़ुद को तमाम दुनिया से?
सभी के सामने जब बेनिक़ाब होना था।
तअल्लुक़ात उसे ख़ुद से दूर रखने थे,
महाज़े-ज़ीस्त पे जो कामयाब होना था।
अँधेरा दूर भगाना था जिसको ग़ुर्बत का,
मशक़्क़तों का उसे आफ़्ताब होना था।
हमें तो दोस्त ! तिरे वास्ते गुलिस्तां में,
हर एक शाख़ पे महका गुलाब होना था।
तिरे बग़ैर, मुझे इल्म मेरे दिल का ‘नूर’!
किसी तरह भी न कम इज़्तिराब होना था।