सिद्ध कवि के लिए एक कच्ची कविता / मुकेश प्रत्यूष
पता नहीं क्यों
मानने को जी करता है
आत्महत्या से लेकर हत्या तक के
ख्याल जरूर आए होंगे सिद्ध कवि को
जब पढ़ी होगी
कभी-कभार शताब्दी की अन्तिम कविता
जिन्होंने पकड़ाई थी उंगली
उन्होंने ही लगा दी लंगी
वह तो हो गई थी पैरों में ताकत
कि मुंह के बल गिरे नहीं
बाद में
एक दिन आया होगा
पत्र
और भेज दी होगी रचनाएं
चले गए होंगे बिना शोक के सम्मेलन-संगोष्ठी में
पुरानी कहावत है - समरथ का नहीं देखते दोष,
ठानते हैं रार या पालते हैं वैर बराबरी वालों से फिर
दीक्षा से मिले हैं जप-तप-नेम-व्रत के साथ प्रगतिशीलता के संस्कार
मिलना है सब से आधा ईंच हंस कर
देना है पानी-पीढ़ा
रहना है अपनी एक लक्ष्मण-रेखा बनाकर
नामवरी आदर्श है
छोड़ना नहीं है अर्धांगिनी के लिए भी कोई प्रवेश-द्वार
बोलना नहीं है अप्रिय सत्य
दिखानी है सफेद औरों
रंग का क्या है
जिन्दा था जब लाल रंग बांधे घूमते रहते थे हरा साफा
भगवे को भी परहेज नहीं है हरियाली से
इस भरोसे काटे जा सकते हैं बाकी दिन
अपूर्व-तरूण के आने की.