सिध्दि-साधना / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
कैसा आया समय, बदला काल का रंग कैसा,
होती जाती भरत-भुवि की आज कैसी दशा है;
आँखें खोलें विबुध-समझें देश की सर्व बातें,
सोचें होके प्रयत, युग के धर्म का मर्म क्या है।
आशा होवे उदय उर में, दूर नैराश्य होवे,
सूझें सारे सुपथ, सफला युक्तियाँ हें हमारी;
ऐसे बाँधों नियम, जिससे कालिमा दूर होवे,
आभा वाले सकल दृग हों, ज्योति फैले जनों में।
प्यारी संख्या प्रतिदिवस है जाति की न्यून होती,
संतप्ता हो दुख-उदधि में मग्न जातीयता है;
छीने जाते हृदय-धान हैं, पत्नियाँ छूटती हैं,
सोने-जैसा सुख-सदन है प्रायश: दग्ध होता।
ढाहे जाते सुर-सदन हैं, मूर्तियाँ टूटती हैं,
बाधा होती अधिकतर है पर्व औ उत्सवों में;
काँटे जाते प्रथित पथ में चाव से हैं बिछाए,
न्यारी शोभा-रहित नित है नंदनोद्यान होता।
की जाती हैं विफल छल से सिंधु जा की कलाएँ,
टूटी-सी है परम मधुरा भारती की सुवीणा;
क्रीड़ा द्वारा कलुषित बनी मंजु मंदाकिनी है,
लूटा जाता धानद-धान है, स्वर्ग है ध्वंस होता।
तो भी होता कलह नित है, वैर है वृध्दि पाता,
सद्भावों के सुमन-चय में हैं घुसे दंम-कीट;
सच्चिता की ललित लतिका हो गयी छिन्न-मूला,
उल्लासों के विपुल विटपी पुष्प ही हैं न लाते।
धर्मों की है निपतित ध्वजा, सत्यता वंचिता है,
हैं शास्त्रों की सबल विधियाँ रूढ़ियों से विपन्ना;
सत्कर्मों की प्रगति बदली लोक-आडम्बरों से,
मोहों द्वारा बहु मथित हो आर्यता मूर्छिता है।
वेदों की है अतुल महिमा, मंत्र हैं सिध्दि-मंत्र,
धाता-जैसी सृजन-पटु हैं उक्तियाँ आगमों की;
भूविख्याता पतित जनता-पावनी जाद्दवी है,
आर्यों के हैं सुअन, हममें कौन-सी न्यूनता है।
सच्ची शिक्षा सतत चित की उच्चता हैं सिखाती,
सद्वांछा है विदित करती-त्याग संकीर्णता दो;
उद्बोधों के विपुल मुख से है यही नाद होता-
जागो-जागो, कटि कस उठो, काल की क्रान्ति देखो।
जो लहू है गरम, यदि है गात में शेष शक्ति,
जो थोड़ी भी हृदय-तल में धर्म की वेदना है;
हो जाता है चित व्यथित जो जाति-उत्पीड़नों से,
तो हो जाओ सजग, सँभलो, सिध्दि का मंत्र साधो।