सिध्दूभा / मानिक बच्छावत
सिध्दूभा अलमस्त मिजाज के थे
वे कोई सिध्द पुरुष नहीं थे
उनकी बुध्दि बहुत मोटी थी
यानी मंद बुध्दि थे
दिमाग के ठठे मींडी ठोठ थे
यानी उनकी बुध्दि कुंद थी
पोशाल यानी पाठशाला के
छोटे बच्चे उन्हें बहुत छेड़ते थे
और उनको तरह-तरह के
नामों से संबोधित करते थे
जैसे सिध्दू बाबा रेवड़ी
घाल गले में जेवड़ी
जेवड़ी में काँटा सिध्दू बाबा आँटा
सिध्दू लड़कों के पीछे भागते
लड़के उन्हें छेड़ते कहते चलते
सिध्दू वरना काम नहीं करना
पट्टी फोड़ बरतना करना
सिध्दूभा से स्कूल के सभी मारजा यानी अध्यापक
तंग आ गए थे, वे पट्टी पर
कुछ नहीं लिखते सिर्फ़
मिंडिंया ही मिंडिंया मांडते रहते
यानी शून्य के अलावा कुछ नहीं
वे किसी तरह कुछ वर्षों तक पोशाल में
समय बर्बाद करते रहे और एक दिन
पोशाल से बाहर ढकेल दिए गए
अब वे रोज सुबह अखाड़े में जाने लगे
वहाँ उन्होंने गुरु हनुमान के चरणों में
सिर रख दिया, हनुमान गुरु ने उन्हें
पहले अखाड़े की मिट्टी कुड़वाई का
काम दिया, वहाँ उन्हें एक मुट्ठी चना
और एक गिलास दूध मिलता
उसे पीकर वे घर लौट आते
अब गवाड़ यानी मोहल्ले में
गुल्ली डंडा मारदड़ी जो एक तरह का देशी क्रिकेट है
कबड्डी खो आदि खेलों में
भाग लेना शुरु किया
और आवारागर्दी करते बड़े हो गए
वे अब बाजार के बीच बने
घूम चक्कर की चौकी पर बैठने लगे
सिध्दूभा को कोई काम नहीं आता था
वे बेहद लापरवाही और बेकाम
किस्म के आदमी के रुप में प्रख्यात थे
पर जब किसी को कोई काम होता और
कोई नहीं मिलता तो वो सिध्दूभा को
बुला लेता
कई तरह के काम करते, यानी कि
वे एक स्टेपनी के रुप में इस्तेमाल किए जाते
सिध्दूभा की जिंदगी इसी तरह बीत रही थी
वे एक नकारा और बेकार आदमी थे
पर फिर भी आड़े वक्त पर सब उनका
इसी तरह इस्तेमाल करते
इनको देखकर अमरीकी लेखक
इर्सकीन काडवेल की किताब
जार्जिया बाय के चरित्र
हैंडसम ब्राउन की याद आती है
लगभग इनके चरित्र से बहुत मिलता था
एक दिन कोई उन्हें कलकत्ता अपने साथ ले गया
वहाँ पहुँचकर वे हक्के-बक्के हो गए
अपने शहर के छूटने का दर्द उन्हें सालता रहा
सुना है कि रास्ता पार करते वक़्त वे
बस के नीचे कुचल कर मर गए
उनकी लाश लावारिस मुर्दाघर में
तीन दिन पड़ी रही फिर रिश्तेदार को पता चला
और उनका अंतिम संस्कार हुआ
अब भी लोग इस बेकाम आदमी को
ज़रूरत के वक्त खोजते हैं और
उन्हें याद करते हैं आज भी उनकी ज़िन्दगी
कहानी बनी घूमती है।