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सिन्धु पाप का गहरा है / विमल राजस्थानी

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बादल गरजे, बिजुरी चमके, बरसे रिमझिम पानी रे !
ऐसे में हम कह लें-सुन अपनी रामकहानी रे !!

(1)
बीते सत्रह साल, किशोरी-
मुक्ति रही पर अनब्याही
घर-आँगन की डगर भूलकर
भटक रहा दर-दर राही

(2)
बनीं योजनाएँ, नदियों की धार-
मुड़ी, कुछ सेतु बँधे
सुनने वाला कौन कुटीरों की-
राधा के बैन रूँधे ?
ढाढ़स कौन बँधाये, पोंछे कौन नयन का पानी रे !
चाँदी से है प्यार, रँगाये कौन चुनरिया धानी रे !!

(3)
त्याग, तपस्या, सेवा, नैतिकता-
थी जिनकी पद-चेरी
बसी हुई उनकी आँखों में-
आज ठनाठन की ढेरी

(4)
मन-मंदिर के दीप ज्योति-हत
यह विद्युत-छवि क्या होगी ?
यह सिद्धों का देश, बन गया-
आज क्लीव, कायर, भोगी
क्या सीखेगा देश भला जब ‘उपदेशक’ अज्ञानी रे !
कैसे ‘आज्ञा-चक्र’ छुयेगा ‘मनुआ-नट’ सैलानी रे !!

(5)
प्रजातंत्र का फल-नैतिकता-
लोप हुई, सन्मार्ग छुटा
रजत-डोर में बँधी, बिक रही
सेवा का दम घुटा-घुटा
(6)
चारों ओर मची शोषण की-
धूम, पतन का पहरा है
कैसे पार लगेगी नैया !
सिन्धु पाप का गहरा है
डब-डब नयन गुहार रही है, स्वतन्त्रता कल्याणी रे !
माँग रही है रक्त भैरवी, नहीं नयन का पानी रे !!

(7)
‘शान्ति-शान्ति’ चिल्लाने वालो !
आज क्रान्ति की वेला है
सच पूछो तो भारत अब भी-
रण में निपट अकेला है

(8)
नहीं साथ दे पाया नगपति
वृद्ध हो चला, कमर झुकी
बीहड़ घने जंगलों की-
रक्षा-रेखा भी थकी-थकी
भिक्षा-पात्र हमारे कब तक भरा करेगी यह दुनिया ?
मँगनी की तलवारों का उतरा होता है पानी रे !

(9)
‘राजमहल’ में, भूखा सारा देश,
प्रवाहित अंगूरी
मंजिल दिखती दूर, न जाने-
कैसे तय होगी दूरी !

(10)
उगलो आग ‘कलम के स्वामी’
स्वप्न भंग हों, झकझोरो
तन्द्रा में तैरते देश को-
क्रान्ति-महोदधि में बोरो

(11)
राजनीति की अंधी आँखों में-
बढ़कर उँगली डालो
व्यक्तिवाद के गरल-सिन्धु-
को अमृत-पुत्र ! मथ-मथ डालो

(12)

रोको अनाचार की द्र्रुतगति
भंग करो यह सन्नाटा
कुचलो लिप्सा की नागिन को-
जिसने जन-जन को काटा
बंदूकें जब ठंडी होतीं, आग उगलती हैं कलमें
जन-जन में ज्वाला बिखेरतीं, कविता और कहानी रे !