भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिपाही / मख़दूम मोहिउद्दीन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह नज़्म दूसरे विश्व-युद्ध के साम्राज्ञी दौर में लिखी गई

जाने वाले सिपाही से पूछो
वो कहाँ जा रहा है ?

          कौन दुखिया है जो गा रही है
          भूखे बच्चे को बहला रही है ।
          लाश जलने की बू आ रही है
          ज़िन्दगी है के चिल्ला रही है ।

जाने वाले सिपाही से पूछो
वो कहाँ जा रहा है ?

          कितने सहमे हुए हैं नज़ारे
          कैसे डर-डर के चलते हैं तारे ।
          क्या जवानी का खूँ हो रहा है
          सुर्ख़ हैं आँचलों के किनारे ।

जाने वाले सिपाही से पूछो
वो कहाँ जा रहा है ?

          गिर रहा है सियाही का डेरा
          हो रहा है मेरी जाँ सवेरा ।
          वो वतन छोड़ कर जाने वाले
          खुल गया इंक़लाबी फरेरा<ref>झंडा</ref> ।

जाने वाले सिपाही से पूछो
वो कहाँ जा रहा है ?

शब्दार्थ
<references/>