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सिफ़ारतख़ानःए-जाँ / अली सरदार जाफ़री

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[एक नज़्म हज़ार साल पुरानी]

हमारे शहरे-दिल में इक सिफ़ारतख़ानः ए-जाँ<ref>प्राणों के दूतावास</ref> है
सिफ़ारत जिस का पर्चम दिलजलों की आहे-सोज़ाँ है
बस इक दस्तूरे-इश्को़-आशिक़ी जो मीरे-सामाँ है
यहाँ आने का रस्ता कूचः-ए-चाक-गिरीबाँ है
यहाँ है रौशनी तन्हा चिराग़े-चश्मे-पुरनम की
यहाँ आओ तो खुल जाएँगी राहें सारे आलम की

यहाँ कश्मीर भी, ढाका भी है, काशी भी, का’बः भी
ज़मीं का हुस्न भी और जल्वःए-अर्शे-मुअल्ला भी
यहाँ झेलम भी है, दज़ला भी है, डेन्यूब-ओ-गंगा भी
अकब<ref>पीछे</ref> मे दूर तक फैला हुआ दश्ते-तमन्ना भी
सरोदे-‘मंज़िले-मा-किब्रिया’<ref>वैभव, शान, ख़ुदा का नाम</ref> उसका तराना है
हक़ीक़त है फ़क़त इन्सान, बाक़ी सब फ़साना है

शब्दार्थ
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