सिमटती नदी / निधि सक्सेना
सिमट रही है नदी
सिकुड़ता जा रहा है आँचल उसका
डरने लगी है शहर के कोलाहल से
डरने लगी है गाँव के सन्नाटे से...
अब नहीं भागती वो
इठलाती मदमाती मुक्त
उसका मुख अब दर्प से दिपदिपाता नहीं
बल्कि क्षोभ से काला पड़ गया है
कि उसकी देह कुतरता जा रहा है मनुष्य...
अब उसमें न प्रेम बचा है न विरह
अब वो अपने भाग्य पर चिहुँकती नहीं
बस विभत्सता की आकृति भर है
तेज़ाब से जली देह सी...
अब बहुत चुप रहती है वो
कलकल नहीं करती
उसके किनारों पर खड़े हो कर
अब कोई गीत नहीं गुनगुनाता
उसकी थिरकन पर कोई विभोर नहीं होता
बस देखता है उपेक्षा भरी दृष्टि से...
वो थक गई है ढोते ढोते
मनुष्य के अन्धविकास का मल
मनुष्य के अंधविश्वास का मल
मनुष्य के विचारों का मल...
वो थक गई है रोते रोते
अपनी निरीहता से झुक गई है
कदाचित महानिर्वाण की तैयारी में है
कि जगह खाली करे
खून की नदियाँ फिर बहें...