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सिमट सिमट सी गई थी ज़मीं किधर जाता / शाज़ तमकनत
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सिमट सिमट सी गई थी ज़मीं किधर जाता
मैं उस को भूला जाता हूँ वरना मर जाता
मैं अपनी राख कुरेदूँ तो तेरी याद आए
न आई तेरी सदा वरना मैं बिखर जाता
तेरी ख़ुशी ने मेरा हौसला नहीं देखा
अरे मैं अपनी मोहब्बत से भी मुकर जाता
कल उस के साथ ही सब रास्ते रवाना हुए
मैं आज घर से निकलता तो किस के घर जाता
मैं कब से हाथ में कासा लिए खड़ा हूँ ‘शाज़’
अगर ये जख़्म ही होता तो कब का भर जाता