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सिमरण (शीर्षक कविता) / संतोष मायामोहन
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खाली है थांरा
अदीतवार सूं लेय’र
सनिवार तांई रा सातूं खानां
कै वार रै एक-एक खानै
मांडो थे कूं कूं पगलिया
अथम अनै-
निसर जावो
थांरी आगै री जातरा माथै।
म्हारो धन,
थारै उदय-अस्त रो
सिमरण।