भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सियासत सीख कर पछताए हो क्या / सुरेश स्वप्निल
Kavita Kosh से
सियासत<ref>राजनीति</ref> सीख कर पछताए हो क्या
सलामत<ref>सुरक्षित</ref> सर बचा कर लाए हो क्या
उड़ी रंगत कहीं सब कह न डाले
हमारे तंज़<ref>व्यंग्य</ref> से मुरझाए हो क्या
लबों<ref>होठों</ref> पर बर्फ़ आँखों में उदासी
कहीं पर चोट दिल की खाए हो क्या
बहुत दिन बाद ख़ुश आए नज़र तुम
हमारे ख़्वाब से टकराए हो क्या
तुम्हारी नब्ज़<ref>नाड़ी, स्पन्दन</ref> इतनी सर्द<ref>ठण्डी</ref> क्यूँ है
किसी का क़त्ल करके आए हो क्या
सितम<ref>अत्याचार</ref> हर शाह करता है मगर तुम
किसी जल्लाद<ref>बधिक</ref> के सिखलाए हो क्या
नमाज़ें पढ़ रहे हो पंजवक़्ता<ref>पाँचो समय की</ref>
ख़ुदा के ख़ौफ़<ref>डर, भय</ref> से थर्राए हो क्या ?!
शब्दार्थ
<references/>