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सियाहकार सियह-रू ख़ता-शिआर आया / शाद अज़ीमाबादी

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सियाहकार सियह-रू ख़ता-शिआर आया
तिरी जनाब में तेरा गुनाहगार आया

ख़िज़ाँ का दौर गया मौसम-ए-बहार आया
मगर न इस दिल-ए-बे-सब्र को क़रार आया

कहीं जवाब न तू ने दिया यहाँ के सिवा
जहाँ में यूँ तो बहुत मैं तुझे पुकार आया

सरा-ए-दहर में छोड़ा तन-ए-कसी़फ अपना
ये बोझ सर से मुसाफ़िर तिरा उतार आया

हमारे नाला-ए-दिल का न पूछिए अहवाल
गली से यार की हिम्मत भी अब के हार आया

पड़ी जो कैस के ऊपर नज़र बयाबाँ में
मुझे ग़रीब के ऊपर ग़ज़ब का प्यार आया

न अपने पाँव से आना मिला गली में तिरी
यहाँ भी चार के काँधों पे मैं सवार आया

ये इजि़्तराब है क्यूँ है किधर का क़स्द ऐ रूह
कहाँ से आई तलब किस जगह से तार आया

बुरा ख़िज़ाँ का हो देखे जो सूखे सूखे होंट
ग़रीब फूल पे मुझ को ग़ज़ब का प्यार पाया

मिरी न पूछ कि तेरी गली में ख़ाक हूँ मैं
तुझी को मेरी वफ़ा का न ए‘तिबार आया

लहद ने खोल के आग़ोश दी जगह जो मुझे
लिपट के रह गए हम को भी ख़ूब प्यार आया

यक़ीन जान ले साक़ी कि ख़ुम की ख़ैर नहीं
ख़ुदा न कर्दा जो अब के मुझे ख़ुमार आया

मिरे नसीब कहाँ इस तरह के दीदा-ए-तर
सुनूँ ये ख़ुश-ख़बरी कान से कि यार आया

निगह ने उन की जहाँ सैद-ए-नौ को ताक लिया
अदा ने उन की कहा ले नया षिकार आया

तिरे फ़िराक के ख़ूगर न मर मिटे जब तक
क़ज़ा के आने का तब तक न ए‘तिबार आया

दिला पलट गया क़िस्मत का पहले ही पासा
अब अपनी जीत कहाँ दिल जब अपना हार आया

जब इख़्तियार चमन पर नहीं तो हम को क्या
हज़ार बार अगर मौसम-ए-बहार आया

शिकायत-ए-दिल-मुज़्तर कहाँ तलक ऐ मौत
दुआएँ दूँगा तुझे गर इसे क़रार आया

जवाब-ए-ख़त का न क़ासिद से माजरा पूछो
है साफ़ चेहरे से ज़ाहिर कि शर्मसार आया

नज़र में फिर गई चाल आप की जवानी की
जो लड़खड़ाता हुआ कोई बादा-ख़्वार आया

जो माँगते तो हमें बाग़बाँ से क्या मिलता
ग़रीब फूल तो दामन को भी पसार आया

न अपने नाला-ए-दिल को मिला जवाब कहीं
निकल के दिल से मुझे अर्श तक पुकार आया

अदम में ‘शाद’ को क्या वलवला हो जन्नत का
कि ये ग़रीब तो हस्ती से दिल को मार आया