भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सियाही ढल के पलकों पर भी आए / कबीर अजमल
Kavita Kosh से
सियाही ढल के पलकों पर भी आए
कोई लम्हा धनक बन कर भी आए
गुलाबी सीढ़ियाँ से चाँद उतरे
खिराम-ए-नाज़ का मंजर भी आए
लहू रिश्तों का अब जमने लगा है
कोई सैलाब मेरे घर भी आए
मैं अपनी फिक्र का कोह-ए-निदा हूँ
कोई हातिम मेरे अंदर भी आए
मैं अपने आप का कातिल हूँ ‘अजमल’
मेरा आसेब अब बाहर भी आए