भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिरजनधरमी !/ कन्हैया लाल सेठिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पड़ग्यो काळ
करै भूख भुआजी थड़ी
जाबक धौळी आभै री आंख
भौम रो मूंडो फक
जा लिया पाणी
डरतो पताळां
भाग छूटी मऊ
फिरै डिडाता ढ़ोर
रात्यूं करळावै मोर
ऊबा सुखै
कुआरां हाथां स्यूं
दूध पियोड़ा पिंपळ
कठै जावै पांगळां ?
आं रा ही साथी
गांव रै गौरवैं रा देव
हूण रै धक्के
भींत रा लेव
संकळाई‘र चिमतकार
धाप्योड़ा री ठुगांर
पड़ग्यो बिखो
ईं नै लिखो‘र छपावो
गावो सूखी सवेंदणां रा गीत
आ है आज रै बड़बोला
सिरजणधरम्यां री नीत !
करै निकमाळै में
सबदां स्यूं रमत
धाप‘र जीमै
दोयूं बगत
फेर साव निरवाळा
कठै है बिस्या कळावंत
जका करता
कुदरत नै अरदास ष्
मिलाता हिवडै़ रा तार
झरती नैणां स्यूं धार
उठती कंठां स्यूं
मेघ-मलार
बण ज्यांतो दातार
सूम इन्दर
खुल ज्यांती
बिरखा री नौळी
बा ही कळा
अबै तो परलाद रो अगन सिनान
गांव री होळी !