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सिरि राम देश / सुशीला बलदेव मल्हू

जून आइल।
नाना बोले-हहम को मनाई
भारत से जुदाई
कि सिरि राम देस से मिलाई।

सुनत रहली,
सिरि राम देस में नगर बाई
माता पिता, कासी पारा

सोची
तब जरूर होइ जयपुरा, उदयपुरा
निकल पड़ली बटोहिया बनके।
तीन महीना झूलत झालत
डूबत उतरात
पहुँचली सिरि राम घाट।

जैसे उतरली, बकड़ा सब्बल कुदाल से
अगवानी लेइस।
देइस कटलिस, बोलस काटो जंगल
बनाओ खेत
मुफत में नाँही मिलत है एक टुक्का ब्रेड,
और नाँहीं दाल भात।

सोची,
कमाई खात तो अइली,
तब काम करो
और दिन भर मरो
और जइहो कहाँ
बरिस के कंत्राक भुगत,
और भारत माता के गोद छोड़े के
(बकड़ा डच लोग-अभी भी कहा जाता है)

और बकड़ा सब परनासी में भोगवाइस
करम भोग, मरयम भोग, फरयम भोग,
सब भोग ही भोग,

अरे बच्चन हम का बताइ
भोगली, भुगतली
बाकी टुटली नाँहीं
हम हिन्दुस्तानी बाँस के बंसज
जरूरत पर झुकब, टूटब नाँहीं
बाकी बच्चन,
सन्तोख के पेड़ में मेवा फरे है।
भुगत के बाद सुख आवे है।
इ देस अब हमरा देस हव
सिरि राम देस, हमारा प्यारा देस।
जहाँ घर-घर में सिरि राम बसत
वेद, रामायण, कुरान पढ़त
जहाँ दयानन्द के सीख समझ
जाति-पाँती के भेद मिटत।

जहाँ सात नदी समन्दर चूमें
कंत्राकी आकाश के छूवे।
तुफान न आवे, भुइडोल न आवे,
सब जाति एक साथ मिल गावे।
कभी न झगड़ा, कभी न दंगा,
हियाँ के दाना, रखे चंगा।

अब बच्चन तू देस सँभाल
बाप दादा के रेले से
भारत सिरि राम दोनों के भैल भलाई
आज भी हम हिन्दुस्तानी हैं।
हाँ सरनामी हिन्दुस्तानी
हमरा देह सरनामी अन्न जल से पलल
पर हमारा मन, आत्मा और संस्कार,
भोजन, भासा-भेस,
अब्बे भी ओइसने हिन्दुस्तानी बाय
धन-धन सिरी राम के
हमका देहिले नया देस
सिरि राम देस।