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सिरेहीन रेखाएँ / दिविक रमेश

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बिन्दु को फैलाकर उभरा

यह जो धब्बा

बेपहचना रूप

भीतर की असमर्थता,

व्याकुलता

बाहर साधनहीन अधूरी व्यक्तता

मुसे क़ागज़ से खिंचे सिरों का हिलना

इंगित से अपरिचित--हवा के उपेक्षित

दिशा का ज्ञान नहीं है ।


थोप दिया क्या मुझ पर, जो

सब कुछ है

बस नाम नहीं है ।


कोई मृत परिभाषा ही दे देते ।