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सिर्फ़ ओसकण / बरीस स्लूत्स्की
Kavita Kosh से
मैं सिर्फ़ एक ओसकण था
जानता था सूख जाऊँगा
गरमी के मौसम में
जानता था कुछ नहीं कर पाऊँगा बचने के लिए
पर सुबह होने से पहले ही
मैं फिर वहीं हूँगा
अपनी पहले की जगह पर ।
प्रकृति के चिरन्तन भँवरजाल में
अपनी भूमिका निभाते हुए
मैंने स्वीकार की सारी पराजय
विपदा के रूप में नहीं
बल्कि सुखद विजयों की शृंखला के रूप में ।
बच्चों का खेल लगा मुझे
पिघलना पहली बर्फ़ के साथ
जानता था बर्फ़ फिर होगी
इस बार की तरह अगली बार भी ।
मैं एक कड़ी हूँ इस शृंखला की
यह अनुभूति बड़ी है
विशाल तायगा और स्तेपी से भी बड़ी
और उस सन्त के जीवन से कहीं अधिक रहस्यमय
फाँसी के फन्दे पर सिर रखते हुए जिसे
हमदर्दी हुई
भविष्य के डर से थरथराते जल्लाद से ।