भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिर और पगड़ी / हरिऔध
Kavita Kosh से
सिर! उछालीं पगड़ियाँ तुम ने बहुत।
कान कितनों का कतर यों ही दिया।
लोग भारी कह भले ही लें तुम्हें।
पर तुमारा देख भारीपन लिया।
सूझ के हाथ पाँव जो न चले।
जो बनी ही रही समझ लँगड़ी।
तो तुम्हारी न पत रहेगी सिर।
पाँव पर डालते फिरे पगड़ी।
जब तुम्हीं ने सब तरह से खो दिया।
तो बता दो काम क्या देती सई।
सोच है पगड़ी उतरने का नहीं।
सिर! तुमारी तो उतर पत भी गई।
देखता हूँ आजकल की लत बुरी।
सिर तुम्हारी खोपड़ी पर भी डटी।
लाज पगड़ी की गँवा, मरजाद तज।
जो तुमारी टोपियों से ही पटी।
दो जने कोई बदल करके जिन्हें।
कर सके भायप रँगों में रंग बसर।
है तुम्हारे सारपन की ही सनद।
सिर तुम्हारी उन पगड़ियों का असर।