सिलता रहा उम्र भर चादर / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
सिलता रहा उम्र भर चादर, किन्तु नहीं सिल पाया ।
यह भी नहीं समझ पाया मैं, क्या खोया क्या पाया ।
कभी चला मैं चाल दुरंगी
कभी चला बेढंगी
कभी मनाते मौज कटे दिन
कभी झेलते तंगी
ढोता रहा उमर भर बोझा, तिल भर चैन न आया ।
छाँव न थोड़ी मिली कहीं भी, जहाँ बैठ सुस्ताया ।
कभी सत्य की पढ़ी कथाएँ
कभी झूठ के किस्से
कभी लगाई गाँठ हवा में
कभी किए दो हिस्से
मथता रहा उमर भर दोहनी, समझ न पाया माया ।
जोड़-जोड़ धन थका, नहीं पर अंत काम कुछ आया ।
रीती की रीती गागर है
नहीं उसे भर पाया
निरखा किया बाट पनघट की
प्यास नहीं हर पाया
चलता रहा परिधि के ऊपर, शिथिल हो गयी काया ।
कालिख लगती रही उमर भर, नहीं छुड़ा मैं पाया ।
सिलता रहा उम्र भर चादर, किन्तु नहीं सिल पाया ।
यह भी नहीं समझ पाया मैं, क्या खोया क्या पाया ।