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सिलसिला / केशव
Kavita Kosh से
मुट्ठियों में
बँद है तफ़ान
सिगरेट के खाली पैकेट की तरह
फेंक देने के लिए जिसे
उंगलियों ने किया युद्ध अनेकों बार
पर बुजुर्गों की आँखों में काँपता देश
अभी मरने को नहीं तैयार
क्या हुआ
अगर झूठ बोलना पड़ता है ख़ुद से
इस बात को ताक में रख दो
और एक अलग-सा दीखने वाला
लिबास पहनकर निकल जाओ
शिकार पर
जंगलों का सिलसिला तो यहाँ
हर कहीं से शुरू होता है
क्या ज़रूरत है
चिल्लाने की
अन्धेरी गली में
पोस्टर चिपकाने की
एक कॉफी का प्याला पीकर ही जब
सँकल्प पायदान बना दिया जाता है।