सिलाई मशीन / कमलेश्वर साहू
मेरे लिये कोई महत्व नहीं
कपड़ा पहले आया
या आयी सिलाई मशीन
पहनावा यदि सभ्य होने की पहचान है
तो हमारे पहनावे में
यानी हमारे सभ्य होने न होने में
उत्तरोत्तर परिवर्तन का
चश्मदीद गवाह है यह
सरकार की सबसे सस्ती
सरल व उपयोगी योजनाओं में से
एक है इसका वितरण
गरीब, विधवा, परित्यक्ता महिलाओं में
माताएं अपनी बेटियों को सिखाती हैं
सिलाई-बुनाई-कढ़ाई
देती हैं दहेज में इसे
कि आड़े वक्त में आये काम
बंधा रहे चार पैसा
उनकी बेटियों की गांठ में
हमारी बेटियों के समान चंचल व बातूनी
हर वक्त करती रहती है पटर पटर
इसकी ‘भाखा’ को समझते हैं कपड़े या फिर दर्जी
आवाज में जरा सा भी बदलाव
कर देता है चौकन्ना
किस पुर्जे में आयी है खराबी
जान जाता है दर्जी
ऐसे समय में
जबकि खत्म हो रहे हैं रोजगार के अवसर
बाजार का खेल चल रहा है उटपटांग
पूंजीपति रच रहे है षडयंत्र
बाजार में रेडीमेड कपड़ों के
एक छत्र राज के बीच
भरोसा दिलाती है यह
कि फिलहाल
दर्जी का परिवार रहेगा सुरक्षित
जुटा लेगा आजीविका
दो वक्त की रोटी
नहीं करेगा आत्महत्या
दो घंटे पचास मिनट की
फूहड़ दृश्यों, उत्तेजक नृत्यों,
कोरी कल्पनाओं, मूर्खतापूर्ण भावुकताओं,
अविश्वसनीय अपराधों,
प्यार व बदले के चालू फार्मूलों से लबरेज
बिना ओर-छोर की कहानी वाली
भारतीय फिल्मों के मायाजाल में
कहीं कुछ यथार्थ होता है
तो सात मिनट के उस दृश्य में
जिसमें होती है सिलाई मशीन
जिसे पति की मृत्यु के बाद
चलाती है उसकी पत्नी
सिलती है पड़ोसियों के कपड़े
और पालती है अपने बच्चे को
बाद में यही बच्चा
बड़ा होकर बनता है नायक
और फिर
दो घंटे पचास मिनट की पूरी फिल्म में
कहीं दिखाई नहीं देती यह
सिलाई मशीन न होती
तो जाने क्या होता कविता मिश्रा का
भूख व पारिवारिक जिम्मेदारियों से
हलाकान परेशान
न जाने
उठाती कौन सा कदम
इस अमानवीय समय में
हम सुई और धागे के समान नहीं जी सकते
किसी के जीवन का ऐसा कुछ भी नहीं सी सकते
जैसे सिलाई मशीन
गाता है फकीर का इकतारा
और शाम भर जाती है
उदासी
उत्कंठा
वितृष्णा
खटास से !
कविता मिश्रा : बिहार के जन कवि स्व. राम प्रिय मिश्र ‘लालधुआं’की 70 वर्षीय वृद्ध पत्नी, जो इस उम्र में भी सिलाई मशीन सुधारकर व कपड़े सी कर अपने परिवार का भरण पोषण करती है। यह कविता संडे आब्ज़र्वर में छपी एक खबर के
आधार पर बहुत पहले लिखी गई थी।