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सिल्चर / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
किसने कहा यह मेरा नहीं? नहीं यह तुम्हारा?
यहाँ पाँव रखते ही छिन जाती छिन्नता।
तार मिल जाते सब मेरे तुम्हारे मुहूर्त में।
उठतीं सिहरतीं सब लहरें आनन्द की सिर से ले पाँव तक।
रहता है बहता स्रोत बराक नदी का
पर्वती छाया में जल भीगी आँखों में तुम्हारी
सर्पिल लावण्य वह जमा हुआ
बीच पत्थरों के,
नाचता जैसे कि संयुक्ताक्षर शक्ति के शब्दों में।
छाती में उग आता परिचित पुराना पेड़
विस्मय-सी शाखाएँ रहतीं झूल
इस देश उस देश
समय गढ़ देता शिल्प प्रकृतिमय
हो उठती शिल्पमय प्रकृति!
मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)