सिसकती है मेरी कश्ती मेरी पतवार जाने क्यूँ / सूरज राय 'सूरज'
सिसकती है मेरी कश्ती मेरी पतवार जाने क्यूँ।
कोई तो है बुलाता है मुझे उस पार जाने क्यूँ॥
पड़ोसी को पता है सब मेरी तन्हाई से बातें
ज़रा ज़्यादा ही सुनने लग गयी दीवार जाने क्यूँ॥
अभी मस्ज़िद भी है ख़ामोश ओ चुप-चुप हैं मन्दिर भी
कि बातें अम्न की करने लगे हथियार जाने क्यूँ॥
गुज़िश्ता हादसों ने इस क़दर हस्सास कर डाला
मुझे परछांई का लगने लगा है भार जाने क्यूँ॥
अंगूठा-दस्तख़त काग़ज़ पर कोरे कर दिये मैंने
खरीदी है बड़े भाई ने फिर तलवार जाने क्यूँ॥
मैं जबसे माँ तुझे व्रद्धाश्रम में छोड़ आया हूँ
सरकने लग गई सर से मेरे दस्तार जाने क्यूँ॥
ये मेरी हार है या कोई समझौता मुक़द्दर से
ज़माने के चलन को कर लिया स्वीकार जाने क्यूँ॥
उठाने लग गया सर मेरे अंदर का भिखारी क्या
मुझे भाने लगे हैं कीमती उपहार जाने क्यूँ॥
बदन की रूह की सारी किताबें छान ली मैंने
नहीं आता समझ में ये तेरा संसार जाने क्यूँ॥
मुझे मालूम है "सूरज" कभी भी कुछ नहीं कहता
किया करते हैं जुगनू ही सदा तकरार जाने क्यूँ॥