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सिसकतें आसूं / विश्राम राठोड़

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उन आसूंओं को अब मैं क्या
समझाऊँ
जो सिसक लिए बैठे है
हर वक़्त अँधेरा हो या उजाला
एक कसक लिए बैठे है
हालत उनकी किसको क्या पता है
जो पलकों पर ठहरें है
उन आसूंओं को अब मैं क्या समझाऊँ
जो सिसक लिए बैठे है

आसूंओं से अब मैं क्या बात करूँ
जो मेरे लिए बैठे हैं
सहज भी अगर संभला नहीं तो
वो अधरों पर लेटें है
उन्हें अब कौन समझाएँ
कितने वह अकेले हैं
अगर एक आँख में आसूं है
दूसरी आँख में सांसें हैं
उन आसूंओं को अब मैं क्या समझाऊँ
जो सिसक लिए बैठे है
पारदर्शी कांच में भी दिखता हैं
पर पानी में भी झमेले हैं
अब उन्हें कौन समझाएँ कि
आयना कांच का हो या कुदरत का
अगर हम पीछे हैं तो अकेले हैं
उन आसूंओं को अब मैं क्या समझाऊँ
जो सिसक लिए बैठे है

बचपन का वह ज़माना जब माँ की छांव में लेटे थे
एक आंसू भी गिरा तो जब माँ ने
पुरे आंचल को समेटे थे
सुख हो या दुख बस एक ही आस लिए बैठे है
उन आसूंओं को अब मैं क्या समझाऊँ
जो सिसक लिए बैठे है
कौन कहता है कि सूरत कांच में ही दिखती
अगर आंखो से देखोगे तो
वही दूर से दिखती
अगर एक ख़ुश है तो दूसरा भी ख़ुशी
के आसूं लोटा देगा
कितना भी पत्थर दिल का हो अपना
जिन्दादिली लोटा देगा
एक आसूं भी गिरा तो वही कसक लिए बैठे है
उन आसूंओं को अब हम क्या समझाएँ
जो सिसक लिए बैठे है
उन आसूंओं को अब मैं क्या समझाऊँ
जो सिसक लिए बैठे है

यह आसूं है जनाब बिना बोले भी
बहुत कुछ कह जाते हैं
सहज भाव में भी सब कुछ सुना जातें हैं
बिना बोले भी बहुत कुछ कह जाते हैं
इनके मौन में भी बहुत कुछ बह जाते हैं
यह आसूं है जनाब बिना बोले भी बहुत कुछ कह जाते हैं
उन आसूंओं को हम क्या समझाएँ
जिनकी सिसकियों में भी सागर को भी
पी जाएँ
ख़ुशी हो या ग़म यह पलकों में छा जातें हैं
यह आसूं ही तो जनाब जो दिलों में भी
बह जातें हैं
उन आसूंओं को मैं क्या समझाऊँ जो
अधरों पर लेटें है
उन आसूंओं को अब मैं क्या समझाऊँ जो सिसक लिए बैठे है