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सीकरी न जाएँ, तो और क्या करें / योगेन्द्र दत्त शर्मा

सीकरी न जाएँ, तो और क्या करें
हम कल के कवि कुम्भनदास तो नहीं !

घर बैठे कवि को अब कौन पूछता
होगा सर्जक महान, काव्य-देवता
हमको क्या, हम हैं सामान्य नागरिक
कोई साहित्यकार ख़ास तो नहीं !

स्वाभिमान, गरिमा का अर्थ क्या भला
सार्थक है युक्ति की, प्रपँच की कला
हम जीवित वर्तमान का मुहावरा
हम कोई मुर्दा इतिहास तो नहीं !

होंगे वे और कि जो साधनाव्रती
हम साधन-सन्धानों के हिमायती
आज आत्म-विज्ञापन सूत्र समय का
ऋषि-मुनि-सा मन अपने पास तो नहीं !

बिसरे तो बिसरे हरिनाम, क्या करें
आत्मा से अब कितना और हम डरें
कोई मृतप्राय वस्तु क्यों हमें ठगे
भीतर ज़िन्दा वह अहसास तो नहीं !

दरबारों में जाकर दें न हाज़िरी
तो कैसे पूरा हो ध्येय आख़िरी
टूटी, तो ले लेंगे और पनहिया
घर बैठे रहेंगे उदास तो नहीं !

होता है सफल वही, जो बिकता है
कौन यहाँ कब तक आख़िर टिकता है
जीवन के लघु प्रसँग हैं, क्षेपक हैं
हम कोई ग्रन्थ, उपन्यास तो नहीं !

हमें चाहिए यश, वैभव, उपाधियाँ
प्रतिभा, तप, श्रम, चिन्तन व्यर्थ व्याधियाँ
राजा, सामन्तों की चाकरी भली
अन्यथा मिलेगा मधुमास तो नहीं !